'पिता' 

वो जुआडी
सौदा का कच्चा था ।
मगर
मेरे लिए तो अच्छा था ।
खेल गया हर दांव
अपनी जिंदगी की ।
लगा दी बोली
अपनी हर ख्वाईसों की ।
उसे था भरोसा
मुझ प्यादें पर
वो लुटाता गया ।
मैं मढता गया ।
वो भूल चुका था
अपने शौकीनों को ।
दरकिनार कर दिया
हर इक अरमानों को ।
लुटा दी अपनी
सारी दौलत ।
मेरें पंखो के बदौलत ।
ये बावले नशेडी
क्यूं किया
इस नशे का आगाज ।
बिक सकता था
और हो जाता बर्बाद ।
लेकिन
आज जहां भी
मैं खुद को पाता हूं ।
हर बार यही
दोहराता हूं ‌।
आप ही वो शख्सियत
जिसकी बदौलत,
आज मैं उड सका
इन उँचाईयों को ।
मैं तैर सका
हर मुश्किलों को ।
इन लंबी उडानों
का स्वाद जो
मुझे चखा दिया ।
खुद को घिसकर
मुझे निखरना
सिखा दिया ।
ये मंजिल तो
अभी कुछ नहीं
बहूत दूर जाना बाकि है ।
आपने तो अपनी
पारी खेल ली ।
हर कठिनाइयाँ झेल ली ‌।
मुझे बहुत कुछ करना बाकि है।
निश्चिंत रहो, हे पित्र
मेरी परिपक्व तैयारी है।
कर दो ऐलान‌ दुनिया को
अब यहां से मेरी बारी है।

-- प्रत्युष कुमार 'भारत' 

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