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  " पहली चुम्बन " वो बावली, शर्मीली पहले बातों‌ में उलझाया, जुल्फों‌ को सुलझाया‌ ! पलकों‌ को‌ भीगाकर, रख दी ओंठ‌‌ पर ही ओंठ। ना देखती वो जरा सा, मैं रोम-रोम‌ डरा सा।‌ शब्द तो नहीं थे लेकिन, थे जज्बात अनसुना सा ! कल की बातुनी छोकरी, अभी मौन सी पडी थी । बाहों में यूं जकडकर, मानो शून्य सी हो चली थी ।। इससे मैं न हैरान था, बस बंधन से अंजान था । शायद समझ रहा था प्रेम को, जो कि‌ सरल और आसान था ।। थोडा दूर उसे हटाकर, गालों‌ को सहलाकर ! ये प्रेम है या है ये रति, पुछा उसे बहलाकर !! वो बावली, शर्मीली, पहले बोलना तो चाहा। कुछ ना कहो, कुछ ना पुछो, धीरे से फुसफुसाया । कुछ बोलता पहले कि, करीब और आ गयी। मुझे अपना बनाना चाहा, यूं आगोश में समां गयी। देखते ही देखते, सारे फासलें मिट गये ! करके आजाद खुदको, एक दूजे से लिपट गये !! भूल जाओ ये जमाना, कैद कर दो रूह मुझमें । अब किसका राह है देखती, हो लिया न तेरे संग में ।। अब जो हो रहा हो जाने दो, एक दुसरे में रंग जाने दो । मुझमें खुद को घोल दो, बांध दिल के खोल दो। है प्रेम की जो प्रगाढता, ढह जाने दो बह जाने दो ।। थम सा गया है ये लम्हा, फिर क्यूं पडी
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 'पिता'  वो जुआडी सौदा का कच्चा था । मगर मेरे लिए तो अच्छा था । खेल गया हर दांव अपनी जिंदगी की । लगा दी बोली अपनी हर ख्वाईसों की । उसे था भरोसा मुझ प्यादें पर वो लुटाता गया । मैं मढता गया । वो भूल चुका था अपने शौकीनों को । दरकिनार कर दिया हर इक अरमानों को । लुटा दी अपनी सारी दौलत । मेरें पंखो के बदौलत । ये बावले नशेडी क्यूं किया इस नशे का आगाज । बिक सकता था और हो जाता बर्बाद । लेकिन आज जहां भी मैं खुद को पाता हूं । हर बार यही दोहराता हूं ‌। आप ही वो शख्सियत जिसकी बदौलत, आज मैं उड सका इन उँचाईयों को । मैं तैर सका हर मुश्किलों को । इन लंबी उडानों का स्वाद जो मुझे चखा दिया । खुद को घिसकर मुझे निखरना सिखा दिया । ये मंजिल तो अभी कुछ नहीं बहूत दूर जाना बाकि है । आपने तो अपनी पारी खेल ली । हर कठिनाइयाँ झेल ली ‌। मुझे बहुत कुछ करना बाकि है। निश्चिंत रहो, हे पित्र मेरी परिपक्व तैयारी है। कर दो ऐलान‌ दुनिया को अब यहां से मेरी बारी है। -- प्रत्युष कुमार 'भारत'